सरदार पटेल के निधन से कुछ महीने पहले कैबिनेट से हाल में इस्तीफ़ा दे चुके श्यामा प्रसाद मुखर्जी नागपुर पहुँचे. वहाँ वो बिना प्लास्टर वाले घर में गए, जहाँ आरएसएस के प्रमुख एमएस गोलवलकर उनका इंतज़ार कर रहे थे.
भारत का पहला आम चुनाव अभी एक साल दूर था. मुखर्जी ने गोलवलकर से एक नई पार्टी शुरू करने में मदद करने का अनुरोध किया. गोलवलकर ने ये कहते हुए उनका ये अनुरोध अस्वीकार कर दिया कि आरएसएस किसी राजनीतिक पार्टी के पीछे नहीं चल सकता.
इसके कुछ महीने बाद गोलवलकर ने अपने फ़ैसले पर पुनर्विचार किया और उन्होंने मुखर्जी से वादा किया कि इस काम के लिए वे अपने पाँच भरोसेमंद कार्यकर्ता देंगे.
ये पाँच लोग थे दीनदयाल उपाध्याय, सुंदर सिंह भंडारी, नानाजी देशमुख, बापूसाहेब सोहनी और बलराज मधोक.
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तब तक अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी इतने अनुभवी नहीं थे कि इस लिस्ट में उनको शामिल किया जाए.
कुछ महीनों बाद 21 अक्तूबर 1951 को इन्हीं पाँच लोगों के नेतृत्व में भारतीय जनसंघ की स्थापना की गई, जिसका चुनाव चिह्न दीपक था.
माधव सदाशिव गोलवलकर का जन्म सन 1906 में नागपुर के पास रामटेक में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था. वो एक दुबले-पतले शख़्स थे, जिन्होंने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में जीव विज्ञान की पढ़ाई की थी.
बीते साल अक्तूबर में प्रकाशित पुस्तक 'गोलवलकर द मिथ बिहाइंड द मैन, द मैन बिहाइंड द मशीन' के लेखक धीरेंद्र के. झा लिखते हैं, "गोलवलकर हमेशा कलफ़ लगी हुई सफ़ेद धोती और कुर्ता पहनते थे. उनकी बड़ी, गहरी चमकदार और बोलती हुई आँखें थीं, लेकिन वो एक संकोची व्यक्ति थे."
"कम-से-कम पाँच भाषाओं- अंग्रेज़ी, हिंदी, मराठी, बांग्ला और संस्कृत में उनको महारत थी."
उनके एक और जीवनीकार गंगाधर इंदुरकर अपनी किताब 'गुरुजी माधव सदाशिव गोलवलकर' में लिखते हैं, "गोलवलकर बहुत पढ़ाकू थे. उन्होंने बीएचयू लाइब्रेरी की हिंदू धर्म और अध्यात्म से संबंधित हर महत्वपूर्ण पुस्तक पढ़ी हुई थी."
हेडगेवार ने अपना उत्तराधिकारी चुनाबनारस में पढ़ाई के दौरान ही वो पहली बार आरएसएस के संस्थापक केशव बलिराम हेडगेवार से मिले थे, लेकिन उनको आरएसएस में लाने का श्रेय उस समय बीएचयू में पढ़ रहे भैय्याजी दानी को दिया जाता है.
सन 1939 में उन्हें आरएसएस का सह-कार्यवाह नियुक्त किया गया.
उस दौरान उन्होंने बाबाराव सावरकर की मराठी में लिखी किताब 'राष्ट्र मीमांसा' से प्रेरित होकर 'वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइंड' नाम की किताब लिखी थी, जो मार्च 1939 में छपी.
अपनी मत्यु से एक दिन पहले आरएसएस के संस्थापक केशव बलिराम हेडगेवार ने गोलवलकर को एक काग़ज़ दिया जिस पर लिखा था, "मैं तुम्हें बताना चाहता हूँ कि अब से तुम संगठन की सारी ज़िम्मेदारी संभालोगे." (गोलवलकर, मिथ बिहाइंड द मैन, मैन बिहाइंड द मशीन)
गोलवलकर के नाम की घोषणा से आरएसएस के कई नेता चौंके. वो उम्मीद कर रहे थे कि हेडगेवार इस पद के लिए किसी वरिष्ठ और अधिक अनुभवी व्यक्ति को चुनेंगे.
वरिष्ठ पत्रकार और लेखक धीरेंद्र झा बताते हैं, "शुरू में हेडगेवार अपने उत्तराधिकारी के रूप में बालाजी हुद्दार को देख रहे थे. उन्होंने उन्हें आरएसएस का सह-कार्यवाह नियुक्त किया था. वे संघ के संस्थापकों में शामिल थे. सन 1936 में वो पढ़ाई के लिए लंदन चले गए थे. वहाँ वो कम्युनिस्टों के संपर्क में आए. लंदन से वो स्पेन गए थे, जहाँ उन्होंने स्पेन के गृह-युद्ध में भाग लिया था."
झा बताते हैं, "जब वो सन 1938 में स्पेन से भारत लौटे, तो उनकी विचारधारा पूरी तरह से बदल चुकी थी. जहाँ हेडगेवार ब्रिटेन के समर्थक थे, वहीं हुद्दार पूरी तरह से ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरोधी बन चुके थे. यहाँ से हेडगेवार और हुद्दार के बीच दूरी बननी शुरू हुई और उन्होंने गोलवलकर को न सिर्फ़ आरएसएस का सह-कार्यवाह बनाया बल्कि वो उन्हें अपने उत्तराधिकारी के रूप में देखने लगे."
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जिस तरह हेडगेवार ने अपने काडर को सविनय अवज्ञा आंदोलन (1930) से दूर रखा, उसी तरह गोलवलकर ने भी अपने लोगों को हर उस काम से दूर रखा, जिससे ब्रिटिश सरकार आरएसएस से नाराज़ हो सकती थी.
भारत छोड़ो आंदोलन (1942) से भी आरएसएस के कार्यकर्ताओं ने दूरी बनाकर रखी.
सावरकर ने कांग्रेस के नेतृत्व वाले आंदोलन को 'जेल जाने का हास्यास्पद कार्यक्रम' करार दिया और हिंदुओं से इसका बहिष्कार करने की अपील की.
(ऑल इंडिया हिंदू महासभा, एंड ऑफ़ ब्रिटिश रूल इन इंडिया, पेज--55)
इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने अपनी किताब 'गाँधी: द इयर्स दैट चेंज्ड द वर्ल्ड' में लिखा, "ये देखना दिलचस्प था कि जहाँ एक तरफ़ जिन्ना मुसलमानों से कांग्रेस के आंदोलन में शामिल न होने की अपील कर रहे थे, वहीं सावरकर भी हिंदुओं से इस आंदोलन में शामिल न होने की अपील कर रहे थे."
धीरेंद्र झा कहते हैं, "आरएसएस की स्थापना ब्रिटिश सरकार की 'फूट डालो, राज करो' की नीति के अनुरूप थी, जिसका उद्देश्य था हिंदू और मुसलमानों को बाँटना. हिंदुओं को बताया जा रहा था कि तुम्हारा मुख्य दुश्मन ब्रिटिश सरकार नहीं, मुसलमान हैं."
"इस अवधारणा पर जब संगठन खड़ा हुआ, उसने ब्रिटिश विरोधी रुख़ नहीं अपनाया. उनका मानना था कि अगर अंग्रेज़ों को किसी कारण से नाराज़ किया जाता है, तो उनके हिंदू एकजुटता के लक्ष्य पर आँच आएगी."
लेकिन इस मामले में वरिष्ठ पत्रकार और इंदिरा गांधी सेंटर ऑफ़ आर्ट्स के प्रमुख राम बहादुर राय अलग राय रखते हैं.
वो कहते हैं, "गोलवलकर ने भले ही आरएसएस के लोगों को भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लेने के लिए प्रेरित नहीं किया, लेकिन उन्होंने किसी को रोका भी नहीं. ऐसे उदाहरण हैं, जब संघ से जुड़े लोगों ने मुज़फ्फ़रपुर, सतारा और पुणे में भारत छोड़ो आंदोलन में हिस्सा लिया."
"मेरा अपना मानना है कि 'गुरुजी' संगठन को बचाकर निकलना चाहते थे, इसलिए उन्होंने इस मामले में पहल नहीं की. दूसरी बात कि वो घोषित रूप से अराजनीतिक व्यक्ति थे."
ये भी पढ़ेंविभाजन से पहले गोलवलकर आरएसएस को देश के कई हिस्सों तक पहुंचाने में कामयाब हो चुके थे. उन्हें उत्तर भारत के कई रजवाड़ों जैसे अलवर और भरतपुर से मदद मिल रही थी.
आरएसएस ने अलवर में कई प्रशिक्षण शिविर आयोजित किए थे, जिसमें से एक को गोलवलकर ने स्वयं संबोधित किया था.
आज़ादी के 15 दिनों बाद तक दिल्ली शांत थी, लेकिन फिर वहाँ सांप्रदायिक हिंसा फैलने लगी थी.
आठ सितंबर, 1947 को दिल्ली को अशांत क्षेत्र घोषित कर दिया गया था. 9 सितंबर को गांधी दिल्ली पहुंचे थे. 12 सितंबर को गाँधी की गोलवलकर से मुलाक़ात हुई थी.
इस मुलाक़ात में गांधी ने गोलवलकर से साफ़ कहा, 'आरएसएस के हाथ ख़ून में रंगे हुए हैं.'
गोलवलकर ने कहा कि "आरएसएस किसी का दुश्मन नहीं है. वो मुसलमानों को मारने का पक्षधर नहीं है. उसका उद्देश्य जहाँ तक संभव हो हिंदुओं की रक्षा करना है."
(कलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ महात्मा गांधी, पेज-177)
गांधी और गोलवलकर में मतभेद
महात्मा गांधी के सचिव रहे प्यारेलाल अपनी किताब 'महात्मा गाँधी, द लास्ट फ़ेज़' में लिखते हैं, "गांधी ने गोलवलकर से कहा कि वे एक बयान जारी करके अपने ऊपर लग रहे आरोपों का खंडन करें और दिल्ली में जारी मुसलमानों की हत्याओं की स्पष्ट शब्दों में निंदा करें. गोलवलकर को ये प्रस्ताव मंज़ूर नहीं था."
"उन्होंने कहा कि हमारे बयान जारी करने की जगह गांधी खुद इस आशय का बयान जारी करें. गांधी ने कहा कि वो ऐसा ज़रूर करेंगे, लेकिन अगर वो (गोलवलकर) वाकई इस बारे में ईमानदार हैं तो उन्हें ये बात अपने मुँह से कहनी चाहिए."
चार दिन बाद 16 सितंबर को गांधी ने दिल्ली के वाल्मीकि मंदिर में आरएसएस के कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए कहा था, "अगर हिंदू समझते हैं कि भारत में मुसलमानों के लिए बराबरी की कोई जगह नहीं है और अगर मुसलमान ये समझते हैं कि पाकिस्तान में हिंदू सिर्फ़ शासित लोगों की तरह ही रह सकते हैं तो ये हिंदू और इस्लाम, दोनों के पतन का कारण बनेगा."
ये भी पढ़ेंपश्चिमी उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिक हिंसा बढ़ती जा रही थी.
उस समय उत्तर प्रदेश के गृह सचिव राजेश्वर दयाल ने अपनी आत्मकथा 'अ लाइफ़ ऑफ़ अवर टाइम' में लिखा, "पश्चिमी रेंज के डीआईजी जेटली मेरे पास ताले लगे दो बड़े ट्रंक लेकर आए. जब ट्रंक को खोला गया तो उसमें प्रदेश के पश्चिमी क्षेत्र में सांप्रदायिक दंगा कराने का पूरा ब्लूप्रिंट मौजूद था. मैं इन सारे सबूतों को लेकर तुरंत प्रीमियर गोविंद बल्लभ पंत के घर पर गया."
"मैंने और जेटली दोनों ने इस सबके पीछे काम कर रहे गोलवलकर की गिरफ़्तारी पर ज़ोर दिया, जो अब भी उस इलाके में मौजूद थे, लेकिन पंत ने गोलवलकर को तुरंत गिरफ़्तार करने के बजाए सारा मामला मंत्रिमंडल की अगली बैठक में रखने का फ़ैसला किया."
दयाल लिखते हैं, "गोलवलकर को इसकी भनक लग गई और वो उस इलाके से तुरंत हट गए."
सालों बाद गांधी हत्या के षड्यंत्र की जाँच कर रहे कपूर आयोग के सामने जेटली ने राजेश्वर दयाल के दावों की पुष्टि की और कहा कि वो और दयाल जीबी पंत से मिले थे. (कपूर आयोग की रिपोर्ट, पेज-62)
गांधी की हत्या पर गोलवलकर की प्रतिक्रिया30 जनवरी, 1948 को नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी की हत्या कर दी.
उस समय गोलवलकर मद्रास में थे. उन्होंने अपने सारे कार्यक्रम रद्द करके नेहरू, पटेल और गांधी के बेटे को शोक का तार भेजा.
इसके बाद उन्होंने आरएसएस की सभी शाखाओं को आंतरिक निर्देश भेजा, 'आदरणीय महात्माजी के दुखद निधन के कारण सभी शाखाएं 13 दिन का शोक मनाएंगी और सभी दैनिक कार्यक्रम स्थगित रहेंगे.'
(श्रीगुरुजी समग्र, खंड-10, पेज-5)
अगले दिन वो नागपुर के लिए रवाना हो गए. बंबई में लगभग एक हज़ार लोगों ने सावरकर के घर पर हमला बोल दिया.
पूरे देश में आरएसएस और हिंदू महासभा के दफ़्तरों पर भीड़ हमला करने लगी.
जाँच के बाद विनायक दामोदर सावरकर को गांधी हत्याकांड में अभियुक्त बनाया गया था, उन्हें सबूत के अभाव में बरी कर दिया गया था.
एक फ़रवरी को गोलवलकर ने बयान जारी किया, "मैं उम्मीद करता हूँ कि लोग इस त्रासदी से सबक सीखेंगे और प्रेम और सेवा भाव से काम लेंगे. मैं अपने सभी स्वयंसेवक भाइयों को निर्देश देता हूँ कि ग़लतफ़हमी से उपजी किसी भी भड़काने वाली कार्रवाई पर भी वो लोगों के साथ प्रेमभाव बनाए रखें. मैं दिवंगत आत्मा को प्रणाम करता हूँ."
(द जनसंघ, द बायोग्राफ़ी ऑफ़ एन इंडियन पॉलिटिकल पार्टी, पेज-43)
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इसके कुछ समय बाद गोलवलकर को हिरासत में ले लिया गया, जब उनको गिरफ़्तार किया जा रहा था, क़रीब एक हज़ार लोग आरएसएस के मुख्यालय पर जमा हो गए थे.
सरदार पटेल ने चार फ़रवरी, 1948 को आरएसएस पर प्रतिबंध लगा दिया.
छह अगस्त, 1948 तक गोलवलकर जेल में रहे, जब वो जेल से बाहर आए, उनसे नागपुर की सीमा में रहने के लिए कहा गया.
उन्होंने सरदार पटेल और जवाहरलाल नेहरू को संघ से प्रतिबंध हटाने के लिए कई पत्र लिखे.
सरदार पटेल ने गोलवलकर को 11 सितंबर 1948 को भेजे अपने जवाब में लिखा, ''संघ ने हिन्दू समाज की सेवा की है, लेकिन आपत्ति इस बात पर है कि आरएसएस बदले की भावना से मुसलमानों पर हमले करता है. आपके हर भाषण में सांप्रदायिक ज़हर भरा रहता है."
"इसका नतीजा यह हुआ कि देश को गांधी का बलिदान देना पड़ा. गांधी की हत्या के बाद आरएसएस के लोगों ने ख़ुशियां मनाईं और मिठाई बाँटीं. ऐसे में सरकार के लिए आरएसएस को बैन करना ज़रूरी हो गया था."
इस बीच गोलवलकर को एक बार फिर गिरफ़्तार कर पहले नागपुर और फिर सिवनी जेल ले जाया गया.
आखिरकार, 12 जुलाई, 1949 को आरएसएस से प्रतिबंध हटा दिया गया और उन्हें रिहा कर दिया गया.
15 दिसंबर 1950 को जब सरदार पटेल का निधन हुआ, तो गोलवलकर नागपुर में थे.
ये पता चलने पर कि सेंट्रल प्रॉविंस के मुख्यमंत्री रविशंकर शुक्ल, पटेल की अंत्येष्टि में भाग लेने के लिए अपने विमान से बंबई जा रहे हैं, गोलवलकर ने उनसे विमान में एक सीट देने का अनुरोध किया.
शुक्ल इसके लिए राज़ी हो गए. बंबई में गोलवलकर ने सरदार पटेल को अंतिम श्रद्धांजलि दी.
(द नेहरू एपॉक, फ्रॉम डेमोक्रेसी टू मोनोक्रेसी, पेज-194)
ये भी पढ़ेंसन 1962 में जब चीन ने भारत पर हमला किया, तो उन्होंने नेहरू से चीनी आक्रमणकारियों को बाहर करने में सरकार को समर्थन की पेशकश की.
गोलवलकर की इस मुहिम में उनका निशाना भारतीय कम्युनिस्ट भी थे, जिन्हें वो चीन के कम्युनिस्ट शासन का 'एजेंट' कहते थे.
चीन से मिली हार को देखते हुए रक्षा मंत्रालय ने 1963 की गणतंत्र दिवस परेड रद्द करने का मन बना लिया था, लेकिन नेहरू ने इसका विरोध करते हुए सैनिक परेड की जगह 'नागरिक परेड' करने का सुझाव दिया.
इस परेड के लिए दिल्ली के मेयर नूरुद्दीन अहमद को इंचार्ज बनाया गया. उन्होंने समाज के हर वर्ग के लोगों को परेड में शामिल होने का आमंत्रण दिया.
अन्य मज़दूर संघों की तरह आरएसएस से जुड़े भारतीय मज़दूर संघ को भी परेड में शामिल होने का न्योता दिया गया. (सेलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ जवाहरलाल नेहरू, पेज-396)
धीरेंद्र झा लिखते हैं, "ये परेड इस मामले में अलग थी कि इसमें सांसदों ने भी भाग लिया था, जिसका नेतृत्व नेहरू और उनके कैबिनेट सहयोगी कर रहे थे. इस परेड में आरएसएस के दो हज़ार स्वयंसेवकों ने अपनी पूरी पोशाक में दिल्ली के दूसरे नागरिकों के साथ मार्च किया था. उनके हाथ में कोई बैनर या झंडा नहीं था."
ये भी पढ़ेंसन 1965 में जब भारत-पाकिस्तान युद्ध छिड़ा, तो शास्त्री ने सर्वदलीय बैठक में अन्य विरोधी दलों के साथ गोलवलकर को भी आमंत्रित किया.
वो महाराष्ट्र के सांगली से ख़ासतौर पर इस बैठक में भाग लेने दिल्ली आए.
अगले दिन उन्होंने स्वयंसेवकों से एक अपील जारी करके कहा कि वो सरकार से हरसंभव तरीके से सहयोग करें.
उन्होंने पाकिस्तान की सीमा से लगे गुजरात के इलाकों का दौरा किया और वहाँ दिए गए उनके भाषणों को आकाशवाणी के बड़ौदा केंद्र ने प्रसारित किया.
इसके बाद वो पंजाब गए और उन्होंने अंबाला छावनी में भारतीय सैनिकों को संबोधित किया.
(द इनकंपयरेबल गुरु गोलवलकर, पेज-274)
'हिंदुओं से अलग हैं मुसलमान'जेए करेन अपनी किताब 'मिलिटेंट हिंदुइज़्म इन इंडियन पॉलिटिक्स' में लिखते हैं कि गोलवलकर की किताब 'वी ऑर आवर नेशनहुड डिफाइंड' उनके विचारों को समझने के लिए बहुत उपयोगी संकलन है.
वे लिखते हैं, "इस किताब को आरएसएस की बाइबिल कहा जा सकता है."
इस किताब से संघ के राष्ट्रवाद के सिद्धांत और राष्ट्र में अल्पसंख्यकों की क्या जगह हो, उसकी झलक मिलती है.
गोलवलकर लिखते हैं कि 'मुसलमान हम से अलग हैं. इस्लाम का जन्म हिंदुस्तान में नहीं हुआ. सावरकर का जो 'पुण्यभूमि' वाला सिद्धांत है, गोलवलकर उसे मानते थे.'
सावरकर ने लिखा है, "भारत मुसलमानों की पुण्यभूमि नहीं है क्योंकि उनकी आस्था के केंद्र मक्का-मदीना हैं, इसलिए भारत के प्रति उनकी निष्ठा संदिग्ध है."
धीरेंद्र झा कहते हैं, "गोलवलकर का आइडिलॉजिकल ब्लूप्रिंट 'वी ऑर अवर नेशनहुड डिफ़ाइंड' से लिया गया है. ये वो राजनीतिक स्पेस बनाने की बात करता है, जिसमें मुसलमानों को दूसरे दर्जे का नागरिक बनाने की सोच है."
वे कहते हैं, "गोलवलकर ने भी बाद में अपने-आप को (वी ऑर अवर नेशनहुड डिफ़ाइंड) से दूर करने की कोशिश की. मैं यहाँ इस बात पर ज़ोर देना चाहता हूँ कि जब तक आरएसएस समर्थक लेखक इस झूठ को फैलाते हैं कि 'वी ऑर अवर नेशनहुड डिफ़ाइंड' हमारा ब्लूप्रिंट नहीं है, तब तक तो ठीक है, लेकिन जब इस बात को शोधकर्ता और लेखक भी दोहराने लगते हैं, तब इसे स्वीकार्यता मिल जाती है."
गोलवलकर के विचारों के संकलन 'बंच ऑफ़ थॉट्स' में सबसे विवादास्पद बात वो थी, जहाँ उन्होंने ईसाइयों, मुसलमानों और कम्युनिस्टों को 'राष्ट्र का आंतरिक शत्रु बताया था'.
सितंबर 2018 में 'बंच ऑफ़ थॉट्स' में से वो हिस्सा हटा दिया गया, जिसमें ये बात कही गई थी.
इन हिस्सों को हटाए जाने के बारे में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने , "वो परिस्थितिवश बोली गई बात थी, वो शाश्वत सत्य नहीं रहती, आरएसएस एक बंद संगठन नहीं है, जैसे समय बदलता है, हमारी सोच बदलती है."
बहरहाल, गोलवलकर के विचारों पर काफ़ी बहस होती है, लेकिन यह सच है कि आरएसएस को पूरे देश में गोलवलकर ने पहुंचाया. वो सबसे लंबे समय 33 वर्षों तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक रहे.
क्रिस्टोफ़र जेफ़्रेलॉट ने अपनी किताब 'हिंदू नेशनलिस्ट मूवमेंट एंड इंडियन पॉलिटिक्स' में लिखा, "गोलवलकर को राजा बनने से ज़्यादा राजा बनवाने में दिलचस्पी थी."
राम बहादुर राय का मानना है कि गोलवलकर ने आरएसएस को टूटने से बचाया और गांधी हत्या के बाद बने माहौल में भी उसे देश की राजनीति में प्रासंगिक बनाए रखा.
धीरेंद्र झा लिखते हैं, "अपनी मृत्यु के बाद हिंदुत्व की राजनीति में उन्होंने क़रीब-क़रीब देवतुल्य स्थान प्राप्त कर लिया है, उनके अनेक शिष्य कई प्रदेशों में मंत्री और मुख्यमंत्री बने, उनमें से दो व्यक्ति अटल बिहारी वाजपेयी और नरेंद्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री बने."
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